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Wednesday 22 April 2020

कविता - क्या मैं हूँ, क्या मैं नहीं

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क्या मैं हूँक्या मैं हूँ नहीं??
समझ आज भी नहीं पाताक्या मैं हूँ या क्या मैं हूँ नहीं। 
पूछता हूँ अपने आप सेक्या मैं हूँ सही या मैं सही नहीं। 

उहापोह थी तब ज़िंदगी कीजो भागती जा रही थी बड़ी रफ़्तारें से,
वो सारे स्टेशन छूट गयेकरना था जिनका दीदार बड़े एतबार से।

दर्द झलकता है जब पटल परभरा मन और भीग जाती हैं पलकें कभी,
सवाल कौंधता है बार बार मन मेंक्या मैं सही हूँ या मैं सही नहीं। 

वक्त लेता है इम्तहान बड़ाबेवक्त की अनगढ़ चुनौतियाँ कर के खड़ी,
टटोल कर ढूँढना पड़ता है अपने वज़ूद कोक्या मैं हूँक्या मैं हूँ नहीं। 

कभी लगता हैभाग कर जा पहुँचूँ फिर उन्हीं वक्त के स्टेशनों पर मैं,
ढ़ूँढू उन गुमे हुए चेहरों कोऔर खुशनसीब हो जाऊँ उन को फिर लगाकर मैं। 

(C) Peeyush Verma
समझ आज भी नहीं पाताक्या मैं हूँ या क्या मैं हूँ नहीं। 
पर असल में ऐसा कुछ होता है नहींजो होता है सहीदिखता है वही,

भावनाओं को छोड़ पगलेआत्मबल से पूछ अपने वो है सही या है नहीं 
भरोसा कर अपने आप परतू जो है नहींवो नहीं और जो हैवही है सही। 

एक यादगार अनुभव- Graceful aging

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