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Saturday 1 June 2019

रिश्तों का मर्म

रिश्तों का मर्म
रिश्ते कुछ तो नैसर्गिक होते हैं जैसे माता, पिता, भाई, बहन, ताऊ, चाचा, मामा इत्यादि और इन रिश्तों की ख़ासियत यह होती है कि मान ना मान मैं तेरा मेहमान की तर्ज़ पर टंगे होते हैं। इन रिश्तों में प्रेम, सरोकार और अपनापन कितना होता है यह निर्भर करता है कि उसको कितनी सहजता और विश्वास से सहेजा गया है। माँ- पिताजी, भाई बहन का रिश्ता याज्जीवन चलता है और निश्छल प्रेम और सरोकार का उत्तम उदाहरण साबित होता है, बशर्ते उसमें स्वार्थ, कलुषता और कपट हावी न हो। बाकी नैसर्गिक रिश्ते समय के साथ शनैः शनैः क्षीण होते चले जाते हैं पर खत्म कभी नहीं होते।
इसके अलावा एक रिश्ता होता है मित्र का। एक सच्चा मित्र किसी भी रिश्ते से ऊपर होता है, इस रिश्ते में अगाध स्नेह, सहजता और वास्तविक सरोकार होता है और सब कुछ निःशर्त और नि:स्वार्थ होता है।मित्रता की सैकड़ो कहानियाँ इतिहास में दर्ज़ हैं; यहाँ भी वही शर्त लागू होती है कि इसमें स्वार्थ और कपट हावी न हो। जिस दिन मित्रता में स्वार्थ और कपट हावी होता है, उस दिन वह रिश्ता कलंकित हो जाता है।माँ पिताजी या अन्य नैसर्गिक रिश्ते जब मित्रवत हो जाते हैं तब इस रिश्ते में वो अटूट विश्वास और वो ईश्वरीय ताक़त आ जाती है कि हम किसी भी विपरीत से जूझने के लिए हमेशा तैयार होते हैं। इसीलिए कहा भी गया है बच्चों से पाँच वर्ष तक बहुत स्नेह, पाँच से सोलह वर्ष तक कठोर अनुशासन में और सोलह वर्ष के बाद मित्रवत व्यवहार करें।
तीसरा रिश्ता होता है सेवा का। नौकरी इसका सर्वोत्तम उदाहरण है। यहाँ आत्मीयता, प्रेम, विश्वास और सरोकार गौण या न्यून हो जाते है और सब कुछ सेवा आदान- प्रदान की शर्तों से नियंत्रित होता है। दिखावा, स्वार्थ और कपट अपनी सेवा को बेहतर साबित करने के साधन बन जाते है। निष्ठा, ईमानदारी, प्रतिबद्धता इत्यादि की बात जरूर होती है परन्तु उसमें सच्चाई कितनी है और दिखावा कितना, यह फिर भी,  सेवा आदान- प्रदान की शर्तों से ही नियंत्रित होता है। यदि सेवा शर्तें बहुत कठोर, अनुशासन वाली और नियंत्रण वाली होंगी, वहाँ ढोंग, दिखावा और कपट भी ज़्यादा होगा। ईश्वर की सेवा के नाम पर ढोंग, दिखावे और छल-कपट के अनगिनत क़िस्से हम रोज़ देखते और सुनते आये हैं। 
एक रिश्ता और है जो ऊपर के तीनों से भिन्न और पूर्णतः निर्विकार, निराकार और आत्मीयता से परिपूर्ण है।वो रिश्ता जो शबरी और राम के बीच था, जो मीरा और गिरधर गोपाल के बीच था, जो राधा और कृष्ण के बीच था। इस रिश्ते में प्रेम, सरोकार और विश्वास चरम पर होता है। इस रिश्ते में ईश्वरीय तत्व की उपस्थिति महसूस की जा सकती है व ढोंग, दिखावे और छल-कपट का कोई स्थान नहीं होता है। हमें स्वयं से ऐसे रिश्ते जोड़ने का प्रयास अवश्य करना चाहिए और ये बात मान लीजिए कि जिस दिन आपका अपने आप से साक्षात्कार हो जाएगा, आपके अंदर से वो सच्चा, उर्जावान और चैतन्य व्यक्तित्व पैदा होगा जो समाज में नयी इबारत लिख सकेगा। 

Sunday 12 July 2015

जीवन का मूल उद्देश्य

ये सोचने की बात है, मेरी ज़िंदगी का उद्देश्य है क्या? पोजिशन, समाज में स्टेटस, बंगला, गाडी या कुछ और। आज हर कोई भागता हुआ नज़र आता है, पर उसे शायद यह नहीं समझ आता की वो क्यूँ भाग रहा है? आज इसके पीछे भागना, कल उसके पीछे भागना, शायद व्यक्ति की नियति ही यह बन जाती है कि वह मृगतृष्णा कि तरह भटकता रहे, भागता रहे, क्या मिला और क्या नहीं मिला, उसके बारे में सोचने का समय ही नहीं।

क्या है मेरे जीवन का उद्देश्य ??? इसका क्या मतलब हुआ? क्या मैं दुनिया का सबसे अमीर आदमी बनना चाहता हूँ? ये है मेरा उद्देश्य?? क्या मैं दुनिया का सबसे सुंदर व्यक्ति बनना चाहता हूँ?? या क्या मैं दुनिया का सबसे ताकतवर व्यक्ति बनना चाहता हूँ। क्या गलत है ऐसे लक्ष्य में? है, बहुत कुछ गलत है।  ये सारे लक्ष्य एक व्यक्ति तक सीमित हैं। इसमे उस व्यक्ति का स्वार्थ निहित है। इस लक्ष्य में सेवाभाव का अभाव है। इस लक्ष्य में जीवन के मूल्यों के प्रति समर्पण का अभाव है।  ऐसा लक्ष्य रखने वाला व्यक्ति अंत में दुखी ही नज़र आता है। इसका गवाह इतिहास है।

हमारा लक्ष्य यानि ज़िंदगी का उद्देश्य बिलकुल सुनिश्चित, साफ़ और दूरगामी, विस्तृत और सबसे बड़ी बात लक्ष्य सर्वभौम होना चाहिए। मानव मात्र की सेवा करना हमारा लक्ष्य हो सकता है। जीवन के उच्च मूल्यों को प्राप्त करके खुशी का अनुभव करना मेरा लक्ष्य हो सकता है। अपने बच्चों को संस्कारित करना हमारा लक्ष्य हो सकता है। समाज के हित साधन के लिए अपनी उपलब्धियों का इस्तेमाल करना, हमारा उद्देश्य हो सकता है।
लक्ष्य ऐसा होने चाहिए की जिंदगी ज़ीने का असली आनंद आ जाए। आपकी सफलता आपको उल्लासित करे, न कि चिंता का कारण बने।

लक्ष्य हासिल करने योग्य है या नहीं, यह सोचकर कभी लक्ष्य निर्धारित नहीं किया जा सकता, वरन उस असंभव से लगने वाले उस लक्ष्य कि प्राप्ति के लिए मैं अपना सौ प्रतिशत दे सकता हूँ यही सोच ही हमे उस लक्ष्य के करीब ले जाती है। कल्पना चावला सोलह दिन अन्तरिक्ष मे रहकर शटल से लौटते समय ठीक सोलह मिनट पहले उसका यान दुर्घटनाग्रस्त हो गया और वो काल के गाल में समा गयी। कल्पना चावला का सपना अन्तरिक्ष कि उन ऊंचाइयों को छूना था जिसकी हम कल्पना भी नहीं कर सकते और उसने उस लक्ष्य को प्राप्त करके अपना और अपने देश क नाम स्वरणक्षरों में लिख दिया।

गांधी, विवेकानंद, विनोबा भावे, बाबा आमटे और ना जाने कितने नाम आपके ज़हन में आते होंगे जिन्होने अपनी जिंदगी को समर्पित कर दिया, उस उद्देश्य की पूर्ति के लिए जिससे समाज, देश और मानव मात्र का भला हो सके। इसीलिए मनीषियों ने कहा है कि उद्देश्य यानि जीवन का लक्ष्य हमेशा ऊँचा होना चाहिए।

एक यादगार अनुभव- Graceful aging

Lanscape अभी अभी मैं उत्तराखण्ड के पहाड़ों से लौटा हूँ, बेटे अभिनव के अनुरोध पर काफी दिनों से कार्यक्रम बनता रहा पर आना अभी हो सका। वो ज्योली...