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Wednesday 22 April 2020

कविता - क्या मैं हूँ, क्या मैं नहीं

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क्या मैं हूँक्या मैं हूँ नहीं??
समझ आज भी नहीं पाताक्या मैं हूँ या क्या मैं हूँ नहीं। 
पूछता हूँ अपने आप सेक्या मैं हूँ सही या मैं सही नहीं। 

उहापोह थी तब ज़िंदगी कीजो भागती जा रही थी बड़ी रफ़्तारें से,
वो सारे स्टेशन छूट गयेकरना था जिनका दीदार बड़े एतबार से।

दर्द झलकता है जब पटल परभरा मन और भीग जाती हैं पलकें कभी,
सवाल कौंधता है बार बार मन मेंक्या मैं सही हूँ या मैं सही नहीं। 

वक्त लेता है इम्तहान बड़ाबेवक्त की अनगढ़ चुनौतियाँ कर के खड़ी,
टटोल कर ढूँढना पड़ता है अपने वज़ूद कोक्या मैं हूँक्या मैं हूँ नहीं। 

कभी लगता हैभाग कर जा पहुँचूँ फिर उन्हीं वक्त के स्टेशनों पर मैं,
ढ़ूँढू उन गुमे हुए चेहरों कोऔर खुशनसीब हो जाऊँ उन को फिर लगाकर मैं। 

(C) Peeyush Verma
समझ आज भी नहीं पाताक्या मैं हूँ या क्या मैं हूँ नहीं। 
पर असल में ऐसा कुछ होता है नहींजो होता है सहीदिखता है वही,

भावनाओं को छोड़ पगलेआत्मबल से पूछ अपने वो है सही या है नहीं 
भरोसा कर अपने आप परतू जो है नहींवो नहीं और जो हैवही है सही। 

Sunday 12 August 2018

ज़िंदगी की रफ़्तार पर कुछ पंक्तियाँ

आहिस्ता चल अब ऐ ज़िंदगी,
जीवन की इबारत अभी बाक़ी है,
कुछ दर्द मिटाना बाक़ी है,
कुछ फ़र्ज़ निभाना बाक़ी है;

रफ़्तार में तेरे चलने से,
कुछ रूठ गए, कुछ छुट गए,
रूठों को मनाना बाक़ी है,
छुटो को मिलाना बाक़ी है;

कुछ रिश्ते बनकर जुड़ते गए,
कुछ जुड़े हुए थे, छुट गए,
उन सब मीठे मीठे रिश्तों के,
जोड़ों को जमाना बाकी है;

जीवन की सहज पहेली को,
अब क्या सुलझाना बाक़ी है?
आहिस्ता चल ऐ मेरी ज़िंदगी,
जीवन का गीत अभी बा
क़ी  है.

एक यादगार अनुभव- Graceful aging

Lanscape अभी अभी मैं उत्तराखण्ड के पहाड़ों से लौटा हूँ, बेटे अभिनव के अनुरोध पर काफी दिनों से कार्यक्रम बनता रहा पर आना अभी हो सका। वो ज्योली...