Sunday, 18 September 2016

कुछ कविताएँ और विचार

मायने जिंदगी के
आज़ मन बडा उदास है,
खुशियाँ कोसों दूर तक नजर नहीं आती;
क्योंकि अरसे बाद हमारी मुलाकात, हमसे ही हो गई।
मुद्दत हुई, जब हम, हमसे मिले थे,
गिले शिकवे बहुत थे, पर हम खामोश थे।
कहते भी क्या, जो कहना था,
उसके शब्द हमारे पास नहीं थे।
हम जो होते हैं, वो दिखते नहीं हैं;
और जो दिखने की कोशिश करते हैं,
वो हम होते नहीं है।
हम वो करते हैं, जो दूसरों को अच्छा लगे।
वो कहते हैं, जिससे दूसरों की दाद मिले।
हमने कहा हमसे, आज़ तो अंदर से बाहर निकल,
आ आज तो खुद से मिल;
आज तो कोशिश कर जिंदगी जीने की,
गिलों को पीने की और फ़टे जज़्बातों को सीने की;
खडा कर खुद को आइने के सामने, पूछ अपने हाल;
मुस्कुराकर गले मिल अपने आपसे,
माफ़ कर अपने आप को,
साफ कर मन के पाप को,
जिंदगी के मायने समझे जाते हैं तभी से,
जब खुद की मुलाकातें होती हैं ख़ुदी से।
मैं भारतीय हूँ
क्यों जरूरत है आज यह सोचने की, कि इतनी समृद्ध संस्कृति की धरोहर होने के बावज़ूद, हम अपने आप के भारतीय होने पर गर्व महसूस नहीं करते। अवसरवादिता, चाटुकारिता, भाईभतीजावाद, और स्वार्थसिद्धि की सारी सीमाएँ लाँघने के बाद भी आज हम खींसे निपोरे क्यों खडे है?? इसी नपुंसकवादी सोच पर चोट करती एक कविता।
मैं भारत का वोटर हूँ, मुझे लड्डू दोनों हाथ चाहिये।
कायरता की डोर हाथ में, पर सुरक्षित हिन्दुस्तान चाहिए।
बिजली मैं बचाऊँगा नहीं, बिजली बिल मुझे कम चाहिये,।
पेड़ मैं लगाऊँगा नहीं, मौसम मुझको नम चाहिये,।
शिकायत मैं करूँगा नहीं, सफाई, सडक दम मस्त चाहिये।
लेन-देन मैं करूँ न कम, पर भ्रष्टाचार का अंत चाहिये।
पढ़ने की मेहनत करी नहीं जाती, नौकरी लालीपॉप चाहिये,।
घर के बाहर से मतलब नहीं, पर शहर मुझको झक-साफ चाहिये।
काम करूँ न धेले भर का, वेतन लल्लनटॉप चाहिये।
नेता एक कुछ बोल गया, सो मुफ्त में पंद्रह लाख चाहिये,।
लाचारों से लाभ उठाऊँ, फिर भी ऊँची साख चाहिये।
लोन मिले बस बिल्कुल सस्ता, बचत पर ब्याज चढ़ा चाहिये,।
धर्म के नाम पे देश बाँट दूं, पर देश मुझको धर्मनिरपेक्ष चाहिये।
जात आगे मेरी ही बढ़े, पर देश तो बस सेक्यूलर ही चाहिये।
नेता मेरी ही जात का हो,पर देश तो आगे बढ़ा चाहिये।।
स्वार्थसिद्ध हो तो देश बेंच दूं, दूज़े के लिए आदर्श चाहिए।
मैं भारत का वोटर हूँ , मुझे लड्डू दोनों हाथ चाहिये।'
ये कटाक्ष है, आज वक़्त आ गया है एक विचार क्रांति का। एक समग्र विचार क्रांति, जो भारतीयता और भारतीय होने पर गर्व का अहसास दे। अब वक्त आ गया है कुछ करने का, जिससे हिन्दुस्तानी होने पर हमें गर्व हो।
छोटी सोच का असर- एक विचार
छोटी और स्वार्थगत सोच केवल नीचे जाने का रास्ता बताती है । व्यक्ति अधोगामी हो जाता है। अपने लिए ही रात-दिन सोचता है, किससे नोचूँ, किसका खाऊँ; कहाँ बोऊँ, क्या पाऊँ; बस इसी उधेडबुन में उसकी जिंदगी व्यतीत हो जाती है और अंतोगत्वा हाथ सिवा दुःख के कुछ नहीं लगता।
व्यापक सोच ही परिपक्वता की निशानी है । सोच बडी रखने से भटकने की गुँजाइशें खत्म हो जाती हैं।व्यक्ति अपने उद्दश्यों के प्रति सचेत रहता है। नित उद्देश्यपरक कर्मों में भागीदारी करते हुए निहितार्थ को प्राप्त करता हुआ याज्जीवन सुखी रहता है।
छोटी छोटी बातें- विचार योग्य बात

अगर रिश्तों की अहमियत, गर्मी और वज़ूद बनाये रखना है तो उसके लिए मंहगे गिफ्ट्स या तारे तोडकर लाने की जरूरत नहीं है। छोटी छोटी बातों से रिश्ते संवर जाते हैं। दो मीठे बोल ही इसके लिए काफ़ी हैं। I am sorry, I love you, I care for you, I missed you, न जाने कितने छोटे छोटे वाक्य होंगे जो हमारे रिश्तों को बना सकते है। Care, concern और trust जिस तरह से express किया जायेगा, रिश्ते भी उसी दिशा में जायेंगे।

नववर्ष पर 
 जो गुज़र गया, सो बिसर गया;
पर जाते जाते सिखा गया,
जीवन की परिभाषा में, कुछ जोड़ गया, कुछ तोड़ गया;
शब्दों के आरोहण में, जीवन की नैया बहती है,
शुद्ध विचार हों, सुंदर मन हो, भला, भला ही होता है,
ये वक़्त का मौज़ा दिखा गया;
जो गुज़र गया, सो बिसर गया, पर जाते जाते सिखा गया.

3 comments:

  1. क्या जो बिसर गया वो सच में दिल से भी इंसान भूल कर माफ कर आगे बढ पाता है???

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  2. क्या आज के जीवन में इंसान दूसरी की छोटी सी भी गलती माफी मांगने पर भी माफ कर पाता है, जैसा आपने लिखा?? काश, ऎसा हो तो जीवन सरल व जीना आसान हो जाऎ..

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  3. छोटी छोटी बातें..सच में विचारणीय और अनुकरणीय, तभी अर्थपूर्ण...वरना बातें है बातों का क्या...

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