यह कविता मैंने अपनी भाँजी के जन्मदिन पर लिखी थी। शुरूआती दौर पर जीवन का संघर्ष अमूमन तोड़ देने वाला होता है। पर बोलते हैं न, जब ईश्वर को देना होता है, तो वो ख़ूब ठोक बज़ाकर परीक्षा लेता है और उसमें पास होने पर ही वो इनाम देता है। आशा-निराशा के हिचकोले खाते उसकी जिंदगी में भी परीक्षाओं के बहुत सारे पड़ाव आये। दोस्तों को नौकरी मिलती गयी, दोस्तों की शादियाँ होती गईं, पर एक चीज़ जिसका साथ उसने नहीं छोड़ा, वह था उसका आत्मविश्वास। अंततः ईश्वर प्रसन्न हुए, अच्छी नौकरी भी मिली और बेहद भले परिवार में शादी भी। आज वो एक बहुत से प्यारे बेटे की माँ है और अपने परिवार की लाड़ली बहू। उसके जन्मदिन पर समर्पित यह कविता
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कब बड़ी हो गयी किताबों को पढ़ते पढ़ते;
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कब बड़ी हो गयी किताबों को पढ़ते पढ़ते;
थम सी गई थी ज़िंदगी, बस यूँ ही चलते चलते,
अचानक थाम लिया दामन ख़ुशियों ने हँसते हँसते,
अब “जम” रही है जिंदगी, अपनों से मिलते जुलते।
रखना “सब” संभाल के, “अपनों” के बीच में तुम
तन्हाई में भी लेना ढूँढ, ख़ुशियों के मोती चुन के;
जीवन के फ़लसफ़े हैं बड़े, किताबों में न मिलेंगे यूँ,
दिलों को थामें रखना, दुआ करते हैं यही दिल से।
आशीष है हमारा, बस यूँ ही ख़ुश रहना तुम,
“हाथों को थामें रखना”, बढ़ना साथ सब मिल के।
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