Thursday, 2 September 2021

क्या फर्क पड़ता है !

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क्या फर्क पड़ता है !

क्या फ़र्क़ पड़ता है कि मैंने लोगों की सीढ़ियाँ बनाई। 

पैदा जो किया था माँ बाप ने

सीढ़ी वो बने तो ही हुई पढ़ाई। 

ज़िंदगी की जद्दोजहद है बहुत भाई,


कई
 खेले पैंतरेकई सीढ़ियाँ बनाई। 

कभी अपने बने सीढ़ीकभी सपने बने सीढ़ी,

मतलब जहाँ निकलापरायों की भी बनाई।

क्या फ़र्क़ पड़ता है कि लोग बने सीढ़ी,

राह पर गुजरना है तो सीढ़ी क्यों हुई पराई?

अपना सुकून ज़िंदगी हैदूसरों की फ़िक्र वो खुद करें,

अपने सुकून की ही ख़ातिर हमने हर सीढ़ी बनाई। 

मतलब की सीढ़ियाँ चढ़ चढ़ कर

बहुत ऊपर  गया हूँ मैं;

अपनी सुकूनों भरी ज़िंदगी अब यूँ पा गया हूँ मैं।

क्यों इतने ऊपर आकरसब गुम सा क्यों हो रहा है?

मुड़ मुड़ कर ढूँढता हूँ कि अपने अब कहाँ हैं,

दूर तलक केवल धुआँज़लज़ले यहाँ वहाँ है। 

जली हुई सीढ़ियों के बीच बस अकेला थक गया हूँ,

अपनों को ढूँढतेपथराई आँखों सा जम गया हूँ। 

सुकून कहीं मिलता नहींटीसें भर उठती हैं,

क्यों खेल किया मैंनेक्यों सीढ़ियाँ बनाईं??

सब अपनों को तो खोयासारी ज़िंदगी भी गँवाई। 

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