Wednesday 5 May 2021

संस्कारों का मोल

मानवता व इंसानियत किसी की बपौती नहीं है। वासु भाई और वीणा बेन गुजरात के एक शहर में रहते हैं। आज दोनों इंदौर यात्रा की तैयारी कर रहे थे। 3 दिन का अवकाश था, वे पेशे से चिकित्सक थे ।लंबा अवकाश नहीं ले सकते थे ।परंतु जब भी दो-तीन दिन का अवकाश मिलता, छोटी यात्रा पर कहीं चले जाते हैं । विवाह के बाद दोनों ने अपना निजी अस्पताल खोलने का फैसला किया, बैंक से लोन लिया ।वीणा बेन स्त्री रोग विशेषज्ञ और वासु भाई डाक्टर आफ मेडिसिन थे ।इसलिए दोनों की कुशलता के कारण अस्पताल अच्छा चल निकला था । आज इंदौर यात्रा पर दोनो रवाना हुए ,आकाश में बादल घुमड़ रहे थे । मध्य प्रदेश की सीमा से बारिश होने लगी थी। भोजन तो मध्यप्रदेश में जाकर करने का विचार था । परंतु चाय का समय हो गया था ।उस छोटे शहर से चार 5 किलोमीटर आगे निकले। सड़क के किनारे एक छोटा सा मकान दिखाई दिया ।जिसके आगे वेफर्स के पैकेट लटक रहे थे ।उन्होंने विचार किया कि यह कोई होटल है। वासु भाई ने वहां पर गाड़ी रोकी, दुकान पर गए , कोई नहीं था ।आवाज लगाई , अंदर से एक महिला निकल कर के आई। उसने पूछा क्या चाहिए ,भाई ? वासु भाई ने दो पैकेट वेफर्स के लिए ,और कहा बेन दो कप चाय बना देना ।थोड़ी जल्दी बना देना, हमको दूर जाना है। पैकेट लेकर के गाड़ी में गए ।वीणा बेन और दोनों ने पैकेट के वैफर्स का नाश्ता किया । चाय अभी तक आई नहीं थी । दोनों कार से निकल कर के दुकान में रखी हुई कुर्सियों पर बैठे ।वासु भाई ने फिर आवाज लगाई । थोड़ी देर में वह महिला अंदर से आई ।बोली -भाई, बाड़े में तुलसी लेने गई थी , तुलसी के पत्ते लेने में देर हो गई, अब चाय बन रही है । थोड़ी देर बाद एक प्लेट में दो मैले से कप ले करके वह गरमा गरम चाय लाई। मैले कप को देखकर वासु भाई एकदम से अपसेट हो गए,और कुछ बोलना चाहते थे।परंतु वीणाबेन ने हाथ पकड़कर उनको रोक दिया । चाय के कप उठाए ।उसमें से अदरक और तुलसी की सुगंध निकल रही थी ।दोनों ने चाय का एक सिप लिया । ऐसी स्वादिष्ट और सुगंधित चाय जीवन में पहली बार उन्होंने पी ।उनके मन की हिचकिचाहट दूर हो गई। उन्होंने महिला को चाय पीने के बाद पूछा," कितने पैसे ? महिला ने कहा - बीस रुपये वासु भाई ने सौ का नोट दिया । महिला ने कहा कि भाई छुट्टा नहीं है । ₹. 20 छुट्टा दे दो ।वासुभाई ने बीस रु का नोट दिया। महिला ने सौ का नोट वापस किया। वासु भाई ने कहा कि हमने तो वैफर्स के पैकेट भी लिए हैं ! महिला बोली यह पैसे उसी के हैं ।चाय के पैसे नहीं लिए। अरे चाय के पैसे क्यों नहीं लिए ? जवाब मिला ,हम चाय नहीं बेंचते हैं। यह होटल नहीं है । -फिर आपने चाय क्यों बना दी ? - अतिथि आए ,आपने चाय मांगी ,हमारे पास दूध भी नहीं था । यह बच्चे के लिए दूध रखा था ,परंतु आपको मना कैसे करते ।इसलिए इसके दूध की चाय बना दी । -अब बच्चे को क्या पिलाओगी ? -एक दिन दूध नहीं पिएगा तो कुछ नहीं होगा। इसके बाबा बीमार हैं वह शहर जा करके दूध ले आते ,पर उनको कल से बुखार है ।आज अगर ठीक हो जाएगे तो कल सुबह जाकर दूध ले आएंगे। वासु भाई उसकी बात सुनकर सन्न रह गये। इस महिला ने होटल ना होते हुए भी अपने बच्चे के दूध से चाय बना दी, और वह भी केवल इसलिए कि मैंने कहा था ,अतिथि रूप में आकर के । संस्कार और सभ्यता में महिला मुझसे बहुत आगे हैं । उन्होंने कहा कि हम दोनों डॉक्टर हैं ,आपके पति कहां हैं बताएं । महिला उनको भीतर ले गई । अंदर गरीबी पसरी हुई थी ।एक खटिया पर सज्जन सोए हुए थे । बहुत दुबले पतले थे । वासु भाई ने जाकर उनका मस्तक संभाला। माथा और हाथ गर्म हो रहे थे,और कांप रहे थे वासु भाई वापस गाड़ी में गए दवाई का अपना बैग लेकर के आए । उनको दो-तीन टेबलेट निकालकर के दी , खिलाई । फिर कहा- कि इन गोलियों से इनका रोग ठीक नहीं होगा । मैं पीछे शहर में जा कर के और इंजेक्शन और इनके लिए बोतल ले आता हूं ।वीणा बेन को उन्होंने मरीज के पास बैठने का कहा । गाड़ी लेकर के गए, आधे घंटे में शहर से बोतल, इंजेक्शन,ले कर के आए और साथ में दूध की थैलीयां भी लेकरआये। मरीज को इंजेक्शन लगाया, बोतल चढ़ाई ,और जब तक बोतल लगी दोनों वहीं ही बैठे रहे । एक बार और तुलसी और अदरक की चाय बनी । दोनों ने चाय पी और उसकी तारीफ की। जब मरीज 2 घंटे में थोड़े ठीक हुए, तब वह दोनों वहां से आगे बढ़े। 3 दिन इंदौर उज्जैन में रहकर , जब लौटे तो उनके बच्चे के लिए बहुत सारे खिलौने, और दूध की थैली लेकर के आए । वापस उस दुकान के सामने रुके ,महिला को आवाज लगाई, तो दोनों बाहर निकल कर उनको देख कर बहुत खुश हो गये। उन्होंने कहा कि आप की दवाई से दूसरे दिन ही बिल्कुल स्वस्थ हो गया । वासु भाई ने बच्चे को खिलोने दिए ।दूध के पैकेट दिए । फिर से चाय बनी, बातचीत हुई, अपनापन स्थापित हुआ। वासु भाई ने अपना एड्रेस कार्ड दिया ।कहा, जब भी आओ जरूर मिले ,और दोनों वहां से अपने शहर की ओर लौट गये । शहर पहुंचकर वासु भाई ने उस महिला की बात याद रखी। फिर एक फैसला लिया। अपने अस्पताल में रिसेप्शन पर बैठे हुए व्यक्ति से कहा कि अब आगे से आप जो भी मरीज आयें, केवल उसका नाम लिखेंगे, फीस नहीं लेंगे ।फीस मैं खुद लूंगा। और जब मरीज आते तो अगर वह गरीब मरीज होते तो उन्होंने उनसे फीस लेना बंद कर दिया । केवल संपन्न मरीज देखते तो ही उनसे फीस लेते ।गरीबों से न तो वो फीस लेते वरन दवा भी साथ में देते जो मरीज दूर दराज गाँवो से आते उन्हें तो वो बस या ट्रेन का किराया भी देते धीरे धीरे शहर में उनकी प्रसिद्धि फैल गई । दूसरे डाक्टरों ने सुना।उन्हें लगा कि इस कारण से हमारी प्रैक्टिस कम हो जाएगी, और लोग हमारी निंदा करेंगे । उन्होंने एसोसिएशन के अध्यक्ष से कहा । एसोसिएशन के अध्यक्ष डॉ वासु भाई से मिलने आए, उन्होंने कहा कि आप ऐसा क्यों कर रहे हो ? तब वासु भाई ने जो जवाब दिया उसको सुनकर उनका मन भी उद्वेलित हो गया । वासु भाई ने कहा कि *"मैं मेरे जीवन में हर परीक्षा में मेरिट में पहली पोजीशन पर आता रहा* *एमबीबीएस में भी ,एम डी में भी गोल्ड मेडलिस्ट बना ,परंतु सभ्यता संस्कार और अतिथि सेवा में वह गांव की महिला जो बहुत गरीब है ,वह मुझसे आगे निकल गयी।* *तो मैं अब पीछे कैसे रहूं?* इसलिए मैंने यह सेवा प्रारंभ की । और मैं यह कहता हूं कि हमारा व्यवसाय मानव सेवा का है। सारे चिकित्सकों से भी मेरी अपील है कि वह सेवा भावना से काम करें ।गरीबों की निशुल्क सेवा करें ,उपचार करें ।यह व्यवसाय धन कमाने का नहीं । परमात्मा ने मानव सेवा का अवसर प्रदान किया है , एसोसिएशन के अध्यक्ष ने वासु भाई को प्रणाम किया और धन्यवाद देकर उन्होंने कहा कि मैं भी आगे से ऐसी ही भावना रखकर के चिकित्सकीय सेवा करुंगा।
यह घटना बहुत छोटी सी है पर मानवता और इंसानियत के लिए बहुत बड़ी सीख है। आज फॉइव स्टार होटलों के माफ़िक़ अस्पताल हो गये हैं, जो मरीज़ और उनके तीमारदारों की सेवा में कोई कसर नहीं छोड़ते। जब देने वाला नहीं सोचता कि इलाज का खर्च मंहगा क्यों तब अस्पताल भी लेने में कोई गुरेज़ नहीं करता। फिर ऐसे अस्पताल क्यों मुफ़्त का इलाज़ करें। वक्त बदलने के लिए लोगों को जागना होगा। शार्ट कट अपनाने की जगह मेहनतकश बनना पड़ेगा। सरकारों ने मुफ़्तख़ोरी का ऐसा स्वाद लगा दिया है कि किसान ने खेत में मेहनत करना बंद कर दी है, गरीब भी मेहनत करने से कतराता है उसे मालूम है उसे सरकार मुफ़्त खाना दवाई देगी ही। पर अब समय आ गया है जागने का। 

Sunday 2 May 2021

मौत का उत्सव

कोरोना ने एक नए सच से हम सबको रूबरू कराया है | हम कितने इस बात से इत्तफ़ाक़ रखते हैं ये तो समय ही बताएगा लेकिन कहीं ना कहीं हमें इन बातों पर विचार जरुर कर लेना चाहिए |
*अपनी मृत्यु...अपनो की मृत्यु डरावनी लगती है बाकी तो मौत का उत्सव मनाता है मनुष्य...
* मौत के स्वाद का चटखारे लेता मनुष्य *थोड़ा कड़वा लिखा है पर मन का लिखा है......
* ... *मौत से प्यार नहीं , मौत तो हमारा स्वाद है ।
* बकरे का,तीतर का, मुर्गे का, हलाल का, बिना हलाल का,भुना हुआ,छोटी मछली, बड़ी मछली, हल्की आंच पर सिका हुआ । न जाने कितने बल्कि अनगिनत स्वाद हैं मौत के । क्योंकि मौत किसी और की, ओर स्वाद हमारा । स्वाद से कारोबार बन गई मौत । मुर्गी पालन, मछली पालन, बकरी पालन, पोल्ट्री फार्म्स । नाम "पालन" और मक़सद "हत्या" । स्लाटर हाउस तक खोल दिये । वो भी ऑफिशियल । गली गली में
खुले नान वेज रेस्टॉरेंट मौत का कारोबार नहीं तो और क्या हैं ?

*मौत से प्यार और उसका कारोबार इसलिए क्योंकि मौत हमारी नही है।
* जो हमारी तरह बोल नही सकते, अभिव्यक्त नही कर सकते, अपनी सुरक्षा स्वयं करने में समर्थ नहीं हैं, उनकी असहायता को हमने अपना बल कैसे मान लिया ? कैसे मान लिया कि उनमें भावनाएं नहीं होतीं ? या उनकी आहें नहीं निकलतीं ?
*डाइनिंग टेबल पर हड्डियां नोचते बाप बच्चों को सीख देते है, बेटा कभी किसी का दिल नही दुखाना ! किसी की आहें मत लेना ! किसी की आंख में तुम्हारी वजह से आंसू नहीं आना चाहिए !
* बच्चों में झुठे संस्कार डालते बाप को, अपने हाथ मे वो हडडी दिखाई नही देती, जो इससे पहले एक शरीर थी , जिसके अंदर इससे पहले एक आत्मा थी, उसकी भी एक मां थी ...?? जिसे काटा गया होगा ? जो कराहा होगा ? जो तड़पा होगा ? जिसकी आहें निकली होंगी ? जिसने बद्दुआ भी दी होगी ? कैसे मान लिया कि जब जब धरती पर अत्याचार बढ़ेंगे तो *भगवान सिर्फ तुम इंसानों की रक्षा के लिए अवतार लेंगे ?
* क्या मूक जानवर उस परमपिता परमेश्वर की संतान नहीं हैं ? क्या उस इश्वर को उनकी रक्षा की चिंता नहीं है ? आज कोरोना वायरस उन जानवरों के लिए, ईश्वर के अवतार से कम नहीं है । जब से इस वायरस का कहर बरपा है, जानवर स्वच्छंद घूम रहे है । पक्षी चहचहा रहे हैं । उन्हें पहली बार इस धरती पर अपना भी कुछ अधिकार सा नज़र आया है । पेड़ पौधे ऐसे लहलहा रहे हैं, जैसे उन्हें नई जिंदगी मिली हो । धरती को भी जैसे सांस लेना आसान हो गया हो । सृष्टि के निर्माता द्वारा रचित करोङो करोड़ योनियों में से एक कोरोना ने हमें हमारी ओकात बता दी । घर में घुस के मारा है और मार रहा है । ओर उसका हम सब कुछ नही बिगाड़ सकते । अब घंटियां बजा रहे हो, इबादत कर रहे हो, प्रेयर कर रहे हो और भीख मांग रहे हो उससे की हमें बचा ले । धर्म की आड़ में उस परमपिता के नाम पर अपने स्वाद के लिए कभी ईद पर बकरे काटते हो, कभी दुर्गा मां या भैरव बाबा के सामने बकरे की बली चढ़ाते हो । कहीं तुम अपने स्वाद के लिए मछली का भोग लगाते हो । कभी सोचा.....!!! क्या ईश्वर का स्वाद होता है ? ....क्या है उनका भोजन ? किसे ठग रहे हो ? भगवान को ? अल्लाह को ? या जीसस को ? या खुद को ? मंगलवार को नानवेज नही खाता ...!!! आज शनिवार है इसलिए नहीं...!!! अभी रोज़े चल रहे हैं ....!!! नवरात्रि में तो सवाल ही नही उठता....!!!
*झूठ पर झूठ....* *....झूठ पर झूठ* *....झूठ पर झूठ...!!
झूठ है या नहीं। इसका निर्णय बड़ा व्यक्तिगत भी है और देश काल परिस्तिथि पर भी निर्भर करता है। ये आस्था का विषय भी है क्यूँकि हम अक्सर इन बातों को धर्म के चश्में से देखते हैं।  खानपान का सीधा सम्बन्ध भौगोलिक स्थिति, तापमान और आजीविका के संसाधनों की उपलब्धता से है। अब जो व्यक्ति लेह लद्दाख या आर्कटिक के बर्फीले पहाड़ों के बीच में रहता है उसके पास खाने के बड़े काम विकल्प होते हैं और मांसाहार उनकी आवश्यकता बन जाता है। 
* फिर कुतर्क सुनो.....फल सब्जियों में भी तो जान होती है ...? .....तो सुनो फल सब्जियाँ संसर्ग नहीं करतीं , ना ही वो किसी प्राण को जन्मती हैं । इसी लिए उनका भोजन उचित है । ईश्वर ने बुद्धि सिर्फ तुम्हे दी । ताकि तमाम योनियों में भटकने के बाद मानव योनि में तुम जन्म मृत्यु के चक्र से निकलने का रास्ता ढूँढ सको । लेकिन तुमने इस मानव योनि को पाते ही स्वयं को भगवान समझ लिया । आज कोरोना के रूप में मौत सामने खड़ी है । तुम्ही कहते थे, की हम जो प्रकति को देंगे, वही प्रकृति हमे लौटायेगी । मौते दीं हैं प्रकृति को तो मौतें ही लौट रही हैं । *बढो...!!!* *आलिंगन करो मौत का....!!!
* यह संकेत है ईश्वर का । प्रकृति के साथ रहो। प्रकृति के होकर रहो ।
*वर्ना..... ईश्वर अपनी ही बनाई कई योनियो को धरती से हमेशा के लिए विलुप्त कर चुके हैं । उन्हें एक क्षण भी नही लगेगा ।* 
 *प्रकृति की ओर चलो🙏
* 🙏🙏 🥦🍒🍓🍑🥭🍊🍋🍎🍏🍉🍌🍇🍍🥥🌽

Wednesday 16 September 2020

मन चंगा तो कठौती में गंगा

💐💐 कोई भी एक विचार मन में बार बार आने की दो वजहें होती हैं। पहली, या तो आप किन्ही विकट परिस्थितियों से गुजर रहे हैं अथवा दूसरी, आपका स्वभाव ही चित्त या मन की अस्थिरता का है। यदि आप पहली स्थिति से गुजर रहें हैं तो आपको समस्याओं को अच्छी तरह पहचान कर उसके निदान के लिए उचित प्रयासों पर मनन चिंतन कर उसके निवारण के हर संभव उपाय करने होंगे।केवल चिंता करते रहने से समस्याओं का निदान नहीं होता। यदि आप दूसरी स्थिति से गुजर रहे हैं तो यह चिंता का विषय है क्योंकि यह आने वाले समय में आपके किसी गंभीर बीमारी से ग्रसित होने की दस्तक है। चित्त या मन की अस्थिरता परिचायक है कि आपने व्यग्रता, उद्वेग, चिंता और व्याकुलता को अपनी सोच में अंगीकार कर लिया है या रचा बसा लिया है। मन वैसे भी चंचल कहा जाता है और होता भी है। विचारों का आना जाना एक नार्मल प्रक्रिया है। हम रोज़ाना 60 से 70 हज़ार विचारों से मिलते हैं या उनसे
Brain Waves

कम्यूनिकेट करते हैं। हमारा दिमाग़ बिलियन सेल्स से बना हुआ है उसका स्वरुप आज तक वैज्ञानिक भी समझ ही रहे हैं।  व्यग्रता और उद्वेग यानी anxiety ही सारी मानसिक और भावनात्मक फ़सादों की जड़ है। इसका संकेत है कि ऐसा व्यक्ति एक ही प्रकार के शब्द या वाक्य अकारण बार बार बोलता है, हड़बड़ी करता है, बोलते बोलते भूल जाता है, तेज बोलता या चलता है। यह भी दिखता है कि ऐसे व्यक्तियों को हर बात की चिंता करना, छोटी छोटी बातों पर विवाद करना, अनावश्यक चिड़चिड़ाना, ग़ुस्सा करना और बेबात अपनी बेतुकी बातों पर अड़े रहने आदि की आदत पड़ जाती है। ये आदतें शरीर में नकारात्मक रसायनों की मात्रा बढ़ाती जाती हैं और अंतोगत्वा डायबिटीज़, थायरॉइड, ह्रदय और साँस आदि से जुड़े विकारों और रोगों के लक्षण शरीर में दिखाई पड़ने लगते है। इसीलिए आवश्यक है कि “चिंतन प्रबंधन” का व्यापक ज्ञान और प्रशिक्षण प्राप्त किया जाये। यह सकारात्मक और व्यवहारिक चिंतन सीखने का तरीक़ा है। चिंतन प्रबंधन के लिए पहला कदम उद्वेग और क्रोध के कारण को समझना और उस पर नियंत्रण करना सीखना है।
ग़ुस्सा आना स्वाभाविक प्रक्रिया है जो लगभग सभी जीवित प्राणियों में समान रूप से होती है। लेकिन, बिना बात के ग़ुस्सा आना, ज़्यादा ग़ुस्सा आना, अचानक तेज ग़ुस्सा आना, हमेशा शिकायत करते रहना, या हमेशा नुख्श निकालते हुए ग़ुस्सा ज़ाहिर करना आदि नकारात्मक सोच को आत्मसात् करने की प्रक्रिया ज़ाहिर करता है और यह आने वाले भविष्य के लिए बीमारियों के दरवाज़े खोलने जैसा है। उद्वेग और क्रोध में इतना ही अंतर होता है कि उद्वेग मन के अंदर निरंतर चलता रहता है और आंतरिक दबाब बढ़ाता जाता है जैसे प्रेशर कुकर के अंदर दबाब बनता रहता है और क्रोध बाहर दिखता है जैसे कुकर से प्रेशर बाहर निकलता है परन्तु उद्वेग फिर भी निरंतर बना रहता है। जो व्यक्ति हमेशा आशंकित या सशंकित रहता है, उसे अनअपेक्षित घटने का डर सदैव बना रहता है। सशंकित व्यक्ति का आत्मविश्वास और विवेक बहुत कमजोर होता है और इसीलिए उसके लिए स्वयं पर अथवा किसी पर भी सहज विश्वास करना मुश्किल होता है। यही स्थिति लंबे समय तक बने रहने से उसका भय उसकी आदत बन जाती है और अपने भय को छुपाने के लिए ऊँची या तल्ख़ आवाज़ में बोलना या अकारण क्रोध करना, छिद्रान्वेषण करना या दूसरों के दोष गिनाना अथवा अपने आप को हमेशा सही साबित करना उसकी मजबूरी बन जाती है। इसीलिए यदि नकारात्मकता आप पर हावी हो रही हो और इसके लक्षण आपके आचार, विचार या व्यवहार में परिलक्षित हो रहे हों तो तुरंत सावधान हो जाइये और आत्ममंथन या आत्मविश्लेषण यानी introspection अवश्य कीजिए और चिंतन प्रबंधन के लिए अपने आप को प्रशिक्षित करिये। ऐसा करना इसीलिए सबसे ज़रूरी है कि आप अनेकों रोगों की असमय गिरफ़्त में आने से अपने आप को बचा सकते हैं।
आत्ममंथन के लिए prerequisite यानी पूर्वापेक्षा है स्वयं के प्रति श्रद्धा और आत्मविश्वास होना। श्रद्धा यानी reverence, faith, devotion or obeisance पैदा करने के लिए मन या चित्त को स्वच्छ, स्थिर और बलवान करना पड़ता है। मंत्रों और ध्यान की सहायता से उसको पुष्ट करना पड़ता है। श्रद्धा जैसे जैसे बढ़ती जाती है, व्यक्ति का स्वयं पर नियंत्रण भी बढ़ता जाता है और अतीन्द्रिय शक्तियों के लिए द्वार खुलने का क्रम शुरु हो जाता है। अतीन्द्रिय शक्तियाँ रिद्धियाँ और सिद्धियाँ देती है। जिस प्रकार हनुमानजी अष्ट सिद्धि और नवनिधियों के स्वामी हैं, उसी तरह मन को वश में करने वाला व्यक्ति भी इन्हें प्राप्त कर सकता है। हनुमानजी की पहली सिद्धि है अणिमा यानी अति सूक्ष्म रूप धारण करने की शक्ति, दूसरी है महिमा यानी विशालकाय रूप धारण करने की शक्ति, तीसरी है गरिमा यानी स्वयं का भार विशालकाय पर्वत की भाँति कर लेना, चौथी है लघिमा यानी अपना भार बिलकुल हल्का कर लेना, पाँचवीं है प्राप्ति यानी कुछ भी प्राप्त कर लेने की शक्ति, छटी सिद्धि है प्राकाम्य यानी अपनी इच्छानुसार देह धारण करने और चिरकालिक तक युवा रहने की शक्ति, सातवीं सिद्धि है ईशित्व यानी दैवीय शक्तियों के प्रयोग से कल्याण करना, आठवीं सिद्धि है वशित्व यानी किसी के मन पर नियंत्रण कर लेना।

Celebrating the Gratitude of getting

शरीर और प्राण का सूक्ष्म- श्राद्ध पक्ष
What we get in our life is due to the efforts, pains and nurturing of someone. It may be our parents, our gurus, our colleagues or even our subordinates. We must remain grateful for whatever we get in or life; whether big or small, so as to understand the importance of getting and also understand the values of the things we get. I remember, when I was young and stood meritorious in class 4th board exam, my father gave me a pen. I still remember his words, "do write with it, your handwriting would be beautiful". I was so proud to have that pen and show it to everyone that my father gave this to me. I kept that pen as an asset.Later I developed very good handwriting. It may not be due to that pen but the words kept ringing in my ear that "you will have good hand writing". There is a scientific relevance of "Pitrpaksh" in our lives. In Hindu calendar during the period of "Aashwin" we celebrate the festival of gratitude of getting. We offer prayers for those who have departed for abode and now remain in energy body.
जब हमारे परिवार का कोई सदस्य हमसे बिछुड़ता है तो उसके जाने का दुःख होना स्वाभाविक है। दुःख और पीड़ा जीवनचक्र का महत्वपूर्ण हिस्सा है। आना और जाना भी जीवन क्रम का अति महत्वपूर्ण हिस्सा है। ईश्वर हमें मानव शरीर इसीलिए देता है कि हम अपने संस्कारों और कर्म के संयोजन से अपने लिए मानवोचित धर्म के अनुरूप कर्म कर उच्च चैतन्य को प्राप्त कर सके। हर व्यक्ति अपने कर्मों के माध्यम से चैतन्य प्राप्ति के लिए एक परिवार, एक समाज और एक देश मे पैदा होता है। जीवन के सारे रिश्ते नाते केवल इसी उद्देश्य की पूर्ति की दिशा में बनते बिगड़ते हैं। राग, द्वेष, प्रेम, पीड़ा और दुःख भी इसी क्रम में आते जाते रहते हैं। यदि अपने जीवनकाल में हम अपने चैतन्य स्तर को ऊपर उठा लेते हैं तो कहा जाता है, जीवन सफल हुआ। जिन ने भी अपने जीवन काल में अपने शरीर के माध्यम से अपने चैतन्य के उच्चतम शिखर को प्राप्त किया हो वे ही समाज में, देश में और मानवता में सुधार में सक्षम रहे हैं। उन्होंने याज्जीवन सशरीर मानव और समाज की सेवा तो की ही और वे लोग ही सूक्ष्म में रहकर और शक्तिशाली होकर समाज सुधार की दिशा में सदैव तत्पर होते रहे हैं।
हमारे दिवंगत पूर्वज, परम पूज्य गुरुदेव, वंदनीया माताजी, ऋषि गण और दिव्य साधक आज भी इस कथन को साकार करते प्रतीत होते हैं। वे सूक्ष्म में रहते हुए हमारे आसपास रहकर हमारे चैतन्य के उद्भव के लिए सदैव प्रयासरत रहते हैं। ऐसी दशा में किसी के शरीर छोड़ने का दुख नहीं होना चाहिए वरन उनकी सूक्ष्म उपस्थिति का संज्ञान लेकर उनसे प्रेरणा और ज्ञान देने का अनुरोध करना चाहिए। श्राद्ध पक्ष में वे समस्त पूर्वज, परिजन, ऋषि, संत, और दिव्य आत्मायें सूक्ष्म रूप में हमारे पास आती हैं और हमसे स्नेहपूर्वक जल अर्पण की अपेक्षा करतीं हैं। श्राद्ध पक्ष में उन्हें श्रद्धा पूर्वक अर्पित किया जल उन्हें दिव्य शाँति प्रदान करता है और वे हमारी चेतना से जुड़कर हमारा मार्गदर्शन करती हैं। 🌼🌼🌼🌼🌼🌼🌼🌼🌼🌼

प्रार्थना की शक्ति

🌼🌼🌼🌼🌼🌼🌼🌼🌼 प्रार्थना की शक्ति एक व्यक्ति गाड़ी से उतरा... और बड़ी तेज़ी से एयरपोर्ट में घुसा, जहाज़ उड़ने के लिए तैयार था, उसे किसी कार्यकर्म मे पहुंचना था जो खास उसी के लिए आयोजित की जा रही था...वह अपनी सीट पर बैठा और जहाज़ उड़ गया... अभी कुछ दूर ही जहाज़ उड़ा था कि... कैप्टन ने घोषणा की, तूफानी बारिश और बिजली की वजह से जहाज़ का रेडियो सिस्टम ठीक से काम नहीं कर रहा... इसलिए हम पास के एयरपोर्ट पर उतरने के लिए विवश हैं. *जहाज़ उतरा वह बाहर निकल कर कैप्टन से शिकायत करने लगा कि... उसका एक-एक मिनट क़ीमती है और होने वाली कार्यकर्म में उसका पहुँचना बहुत ज़रूरी है... पास खड़े दूसरे यात्री ने उसे पहचान लिया... और बोला डॉक्टर पटनायक आप जहां पहुंचना चाहते हैं... टैक्सी द्वारा यहां से केवल तीन घंटे मे पहुंच सकते हैं... उसने धन्यवाद किया और टैक्सी लेकर निकल पड़ा...*
*लेकिन ये क्या आंधी, तूफान, बिजली, बारिश ने गाड़ी का चलना मुश्किल कर दिया, फिर भी ड्राइवर चलता रहा...* *अचानक ड्राइवर को आभास हुआ कि वह रास्ता भटक चुका है...* *ना उम्मीदी के उतार चढ़ाव के बीच उसे एक छोटा सा घर दिखा... इस तूफान में वहीं ग़नीमत समझ कर गाड़ी से नीचे उतरा और दरवाज़ा खटखटाया...* *आवाज़ आई... जो कोई भी है अंदर आ जाए... दरवाज़ा खुला है...* *अंदर एक बुढ़िया आसन बिछाए भगवद् गीता पढ़ रही थी... उसने कहा ! मांजी अगर आज्ञा हो तो आपका फोन का उपयोग कर लूं...* *बुढ़िया मुस्कुराई और बोली... बेटा कौन सा फोन?? यहां ना बिजली है, ना फोन..* *लेकिन तुम बैठो... सामने चरणामृत है, पी लो... थकान दूर हो जायेगी... और खाने के लिए भी कुछ ना कुछ फल मिल जायेगा...खा लो ! ताकि आगे यात्रा के लिए कुछ शक्ति आ जाये...*
*डाक्टर ने धन्यवाद किया और चरणामृत पीने लगा... बुढ़िया अपने पाठ मे खोई थी कि उसके पास उसकी नज़र पड़ी... एक बच्चा कंबल मे लपेटा पड़ा था जिसे बुढ़िया थोड़ी थोड़ी देर मे हिला देती थी...* *बुढ़िया की पूजा हुई तो उसने कहा... मां जी ! आपके स्वभाव और व्यवहार ने मुझ पर जादू कर दिया है... आप मेरे लिए भी प्रार्थना कर दीजिए... यह मौसम साफ हो जाये मुझे उम्मीद है आपकी प्रार्थनायें अवश्य स्वीकार होती होंगी...* *बुढ़िया बोली... नही बेटा ऐसी कोई बात नही... तुम मेरे अतिथी हो और अतिथी की सेवा ईश्वर का आदेश है... मैने तुम्हारे लिए भी प्रार्थना की है... परमात्मा की कृपा है... उसने मेरी हर प्रार्थना सुनी है...* *बस एक प्रार्थना और मै उससे माँग रही हूँ शायद जब वह चाहेगा उसे भी स्वीकार कर लेगा...* *कौन सी प्रार्थना..?? डाक्टर बोला...* *बुढ़िया बोली... ये जो 2 साल का बच्चा तुम्हारे सामने अधमरा पड़ा है, मेरा पोता है, ना इसकी मां ज़िंदा है ना ही बाप, इस बुढ़ापे में इसकी ज़िम्मेदारी मुझ पर है, डाक्टर कहते हैं... इसे कोई खतरनाक रोग है जिसका वो उपचार नहीं कर सकते, कहते हैं की एक ही नामवर डाक्टर है, क्या नाम बताया था उसका !* *हां "डॉ पटनायक " ... वह इसका ऑपरेशन कर सकता है, लेकिन मैं बुढ़िया कहां उस डॉ तक पहुंच सकती हूं? लेकर जाऊं भी तो पता नही वह देखने पर राज़ी भी हो या नही ? बस अब बंसीवाले से ये ही माँग रही थी कि वह मेरी मुश्किल आसान कर दे..!!* *डाक्टर की आंखों से आंसुओं की धारा बह रहा है....वह भर्राई हुई आवाज़ मे बोला !* *माई...आपकी प्रार्थना ने हवाई जहाज़ को नीचे उतार लिया, आसमान पर बिजलियां कौधवा दीं, मुझे रास्ता भुलवा दिया, ताकि मैं यहां तक खींचा चला आऊं, हे भगवान! मुझे विश्वास ही नहीं हो रहा... कि एक प्रार्थना स्वीकार करके अपने भक्तों के लिए इस तरह भी सहयता कर सकता है.....!!!!* *दोस्तों, वह सर्वशक्तिमान है.... परमात्मा के भक्तो उससे लौ लगाकर तो देखो... जहां जाकर प्राणी असहाय हो जाता है, वहां से उसकी परम कृपा शुरू होती है...। 🌻🌻🌻🌻🌻🌻🌻🌻🌻🌻

Friday 11 September 2020

एक कहानी- गायत्री निवास

 *गायत्री निवास*

*बच्चों को स्कूल बस में बैठाकर वापस  शालू खिन्न मन से टैरेस पर जाकर बैठ गईसुहावना मौसमहल्के बादल और  

क्षियों का मधुर गान कुछ भी उसके मन को वह सुकून नहीं दे पा रहे थेजो वो अपने पिछले शहर के घर में छोड़ आई थी.*


*शालू की इधर-उधर दौड़ती सरसरी ज़रें थोड़ी दूर एक पेड़ की ओट में खड़ी बुढ़िया पर ठहर गईं.*


*‘ओहफिर वही बुढ़ियाक्यों इस तरह से उसके घर की ओर ताकती है ?’*


*शालू की उदासी बेचैनी में तब्दील हो गईमन में शंकाएं पनपने लगींइससे पहले भी शालू उस बुढ़िया को तीन-चार बार नोटिस कर 

चुकी थी.*

*दो महीने हो गए थे शालू को पूना से गुड़गांव शिफ्ट हुएमगर भी तक एडजस्ट नहीं हो पाई थी.*


*पति सुधीर का बड़े ही शॉर्ट नोटिस पर तबादला हुआ थावो तो आते ही अपने काम और ऑफ़िशियल टूर में व्यस्त हो गएछोटी शैलीका तो पहली क्लास में आराम से एडमिशन हो गयामगर सोनू को बड़ी मुश्कि से पांचवीं क्लास के मिड सेशन में एडमिशन मिलावोदोनों भी धीरे-धीरे रूटीन में  रहे थेलेकिन शालूउसकी स्थिति तो जड़ से उखाड़कर दूसरी ज़मीन पर रोपे गए पेड़ जैसी हो गई थीजोअभी भी नई ज़मीन नहीं पकड़ पा रहा था.*


*सब कुछ कितना सुव्यवस्थित चल हा था पूना मेंउसकी अच्छी जॉब थीघर संभालने के लिए अच्छी

 मे थीजिसके भरोसे वह घरऔर रसोई छोड़कर सुकून से ऑफ़िस चली जाती थीघर के पास ही बच्चों के लिए एक अच्छा-सा डे केयर भी थास्कूल के बाद दोनों बच्चे शाम को सके ऑफ़िस से लौटने तक वहीं रहतेलाइफ़ बिल्कुल सेट थीमगर 

सुधीर के एक तबादले की वजह से सब गड़बड़ होगया.*


*यहां  आस-पास कोई अच्छा डे केयर है और  ही कोई भरोसे लायक 

मे ही मिल रही हैउसका केरियर तो चौपट ही समझो और इतनी टेंशन के बीच ये विचित्र बुढ़ियाकहीं 

छुपकर घर की टोह तो नहीं ले रहीवैसे भी इस इलाके में चोरी और फिरौती के लिए बच्चोंका अपहरण कोई नई बात नहीं हैसोचते-सोचते शालू परेशान हो उठी.*


*दो दिन बाद सुधीर टूर से वापस आएतो शालू ने उस बुढ़िया के बारे में बतायासुधीर को भी कुछ चिंता हुई, “ठीक हैअगली बार कुछ ऐसा होतो वॉचमैन को बोलना वो उसका ध्यान रखेगावरना फिर देखते हैंपुलिस कम्प्लेन कर सकते हैं.” कुछ दिन ऐसे ही गुज़र गए.*


*शालू का घर को दोबारा ढर्रे पर लाकर नौकरी करने का संघर्ष  जारी थापर इससे बाहर आने की कोई सूरत नज़र नहीं  रही थी.*


*एक दिन सुबह शालू ने टैरेस से देखावॉचमैन उस बुढ़िया के साथ उनके मेन गेट पर आया हुआ थासुधीर उससे कुछ बात कर रहे थे.

 पा से देखने पर उस बुढ़िया की सूरत कुछ जानी पहचानी-सी लग रही थीशालू को लगा उसने यह चेहरा कहीं और भी देखा हैमगर कुछ याद नहीं  रहा थाबात करके सुधीर घर के अंदर  गए और वह बुढ़िया मेन गे पर ही खड़ी रही.*



*“अरेये तो वही बुढ़िया हैजिसके बारे में मैंने आपको बताया थाये यहां क्यों आई है ?” शालू ने चिंतित स्वर में सुधीर से पूछा.*


*“बताऊंगा तो आश्चर्यचकित रह जाओगीजैसा तुम उसके बारे में सो रही थीवैसा कुछ भी नहीं है. जानती हो वो कौन है ?”*


*शालू का विस्मित चेहरा आगे की बात सुनने को बेक़रार था.*


*“वो इस घर की पुरानी मालकिन हैं.”*


*“क्या ? मगर ये घर तो हमने मिस्टर शांतनु से ख़रीदा है.”*


*“ये लाचार बेबस बुढ़िया उसी शांतनु की अभागी मां हैजिसने पहले धोखे से सब कुछ अपने नाम करा लिया और फिर ये घर हमें बेचकर विदे चला गयाअपनी बूढ़ी मां गायत्री देवी को एक वृद्धाश्रम में छोड़कर.*


*छी… कितना कमीना इंसान हैदेखने में तो बड़ा शरीफ़ लग रहा था.”*


*सुधीर का चेहरा वितृष्णा से भर उठावहीं शालू याद्दाश्त पर कु ज़ोर डाल रही थी.*


*“हांयाद आयास्टोर रूम की फ़ाई करते हुए इस घर की पुरानी नेमप्लेट दिखी थीउस पर ‘गायत्री निवास’ लिखा थावहीं एकराजसी ठाठ-बाटवाली महिला की एक पुरानी फ़ोटो भी थीउसका चेहरा ही इस बुढ़िया से मिलता थातभी मुझे गा था कि  इसे कहीं देखा हैमगर अब ये यहां क्यों आई हैं ?*


*क्या घर वापस लेने ? पर हमने तो इसे पूरी क़ीमत देकर ख़रीदा है.” शालू चिंतित हो उठी.*


*“नहींनहींआज इनके पति की हली बरसी हैये उस कमरे में दीया जलाकर प्रार्थना करना चाहती हैंजहां उन्होंने अंतिम सांस लीथी.”*


*“इससे क्या होगामुझे तो इन बातों में कोई विश्वास नहीं.”*


*“तुम्हें  सहीउन्हें तो है और अगर हमारी हां से उन्हें थोड़ी-सी ख़ुशी मिल जाती हैतो हमारा क्या घट जाएगा ?”*


*“ठीक हैआप उन्हें बुला लीजिए.” अनमने मन से ही सहीमगर शालू ने हां कर दी.*


*गायत्री देवी अंदर  गईंक्षी कायातन पर पुरानी सूती धोतीबड़ी-बड़ी आंखों के कोरों में कु जमेकुछ पिघले से आंसूअंदरआकर उन्होंने सुधीर और शालू को ढेरों आशीर्वाद दिए.*


*नज़रें भर-भरकर उस पराये घर को देख रही थींजो कभी उनका अपना थाआंखों में कितनी स्मृतियां, कितने सुख और कितने ही दुख एक सा तैर आए थे.*


*वो ऊपरवाले कमरे में गईंकुछ देर आंखें बंद कर बैठी रहींबं आंखें लगातार रिस रही थीं.*


*फिर उन्होंने दिया जलायाप्रार्थना की और फिर वापस से दोनों को आशीर्वाद देते हुए कहने लगीं, “मैं इस घर में दुल्हन बनकर आई थीसोचा थाअर्थी पर ही जाऊंगीमगर…” स्वर भर्रा आया था.*


*“यही कमरा था मेराकितने साल हंसी-ख़ुशी बिताए हैं यहां अपनों के साथमगर शांतनु के पिता के जाते ही…” आंखें पुनः भर आईं.*


*शालू और सुधीर नि:शब्द बैठे रहेथोड़ी देर घर से जुड़ी बातें कर गायत्री देवी भारी क़दमों से उठीं और चलने लगीं.*


*पैर जैसे इस घर की चौखट छोड़ने को तैयार ही  थेपर जाना तो था हीउनकी इस हालत को वो दोनों भी महसूस कर रहे थे.*


*“आप ज़रा बैठिएमैं अभी आती हूं.” शालू गायत्री देवी को रोककर कमरे से बाहर चली गई और इशारे से सुधीर को भी बाहर बुलाकरकहने गी, “सुनिएमुझे एक बड़ा अच्छा 

आइडिया आया हैजिससे हमारी लाइफ़ भी सुधर जाएगी और इनके टूटे दिल को भी आराम मिल जाएगा.*


*क्यों  हम इन्हें यहीं रख लें ?* *अकेली हैंबेसहारा हैं और इस घर में इनकी जान बसी हैयहां से कहीं जाएंगी भी नहीं और हम यहांवृद्धाश्रम से अच्छा ही खाने-पहनने को देंगे उन्हें.”*


*“तुम्हारा मतलब हैनौकर की तर ?”*

*“नहींनहींनौकर की तरह नहींहम इन्हें कोई तनख़्वाह नहीं देंगेकाम के लिए तो मेड भी हैये घर पर रहेंगीतो घर के 

दमीकी तरह मेड परआने-जानेवालों पर नज़र रख सकेंगीबच्चों को दे-संभाल सकेंगी.*

 

*ये घर पर रहेंगीतो मैं भी आरा से नौकरी पर जा सकूंगीमुझे भी पीछे से घर कीबच्चों के खाने-पीने की टेंशन नहीं रहेगी.”*


*“आइडिया तो अच्छा हैपर क्या ये मान जाएंगी ?”*


*“क्यों नहींहम इन्हें उस घर में रहने का मौक़ा दे रहे हैंजिसमें उनके प्राण बसे हैंजिसे ये छुप-छुपकर देखा करती हैं.”*


*“और अगर कहीं मालकिन बन घर पर अपना हक़ जमाने लगीं तो ?”*


*“तो क्यानिकाल बाहर करेंगेघर तो हमारे नाम ही हैये बुढ़िया क्या कर सकती है.”*


*“ठीक हैतुम बात करके देखो.” सुधीर ने सहमति जताई.*


*शालू ने संभलकर बोलना शुरू किया, “देखिएअगर आप चाहेंतो यहां रह सकती हैं.”*


*बुढ़िया की आंखें इस अप्रत्याशि प्रस्ताव से चमक उठींक्या वाक़ई वो इस घर में रह सकती हैंलेकिन फिर बुझ गईं.*


*आज के ज़माने में जहां सगे बेटे ने ही उन्हें घर से यह कहते हु बेदख़ल कर दिया कि अकेले बड़े  में रहने से अच्छा उनके लिए 

वृद्धाश्रम में रहना होगावहां ये पराये लोग उसे बिना किसी स्वार्थ के क्यों रखेंगे ?*


*“नहींनहींआपको नाहक ही परेशानी होगी.”*


*“परेशानी कैसीइतना बड़ा घर है और आपके रहने से हमें भी आराम हो जाएगा.”*


*हालांकि दुनियादारी के कटु अनुभवों से गुज़र चुकी गायत्री देवी शालू की आंखों में छिपी मंशा मझ गईंमगर उस घर में रहने के मोह में वो मना  कर सकीं.*


*गायत्री देवी उनके साथ रहने  गईं और आते ही उनके सधे हुए अनुभवी हाथों ने घर की ज़िम्मेदारी बख़ूबी संभाल ली.*


*सभी उन्हें  अम्मा कहकर ही बुलातेहर काम उनकी निगरानी में सुचारु रूप से चलने लगा.*


*घर की ज़िम्मेदारी से बेफ़िक्र होकर शालू ने भी नौकरी ज्वॉइन कर लीसालभर कैसे बीत गयापता ही नहीं चला.*


*अम्मा सुबह दोनों बच्चों को उठातींतैयार करतींमान-मनुहार 

 खिलातीं और स्कूल बस तक छोड़तींफिर किसी कुशल प्रबंधक कीतरह अपनी देखरेख में बाई से सारा

 का करातींरसोई का वो स्वयं ख़ास ध्यान रखने लगींख़ासकर बच्चों के स्कूल से आने के व़क़्त वो नि नए स्वादिष्ट और पौष्टिक

 व्यंजन तैयार कर देतीं.*


*शालू भी हैरान थी कि जो बच्चे चिप्स और पिज़्ज़ा के अलावा कुछ भी मन से  खाते थेवे उनके बनाए व्यंजन ख़ुशी-ख़ुशी खाने लगेथे.*


*बच्चे अम्मा से बेहद घुल-मिल  थेउनकी कहानियों के लालच में कभी देर तक टीवी से चिपके रहनेवाले बच्चे उनकी हर बात मानने लगेसमय से खाना-पीना और होमवर्क निपटाकर बिस्तर में पहुंच जाते.*


*अम्मा अपनी कहानियों से बच्चों में एक ओर जहां अच्छे संस्कार डाल रही थींवहीं हर व़क़्त टीवी देखने की बुरी आदत से भी दूर ले जारही थीं.*


*शालू और सुधीर बच्चों में आए सुखद परिवर्तन को देखकर अभिभूत थेक्योंकि उन दोनों के पास तो 

भी बच्चों के पास बैठ बातें करनेका भी समय नहीं होता था.*


*पहली बार शालू ने महसूस किया कि घर में किसी बड़े-बुज़ुर्ग की उपस्थितिनानी-दादी का प्यारबच्चों पर कितना सकारात्मक प्रभावडालता हैउसके बच्चे तो शुरू से ही इस सुख से वंचित रहेक्योंकि उनके जन्म से पहले ही उनकी नानी और दादी दोनों गुज़र चुकी थीं.*


*आज शालू का जन्मदिन थासुधीर और शालू ने ऑफ़िस से थोड़ा जल्दी निकलकर बाहर डिनर करने का प्लान बनाया थासोचा थाबच्चों को अम्मा संभाल लेंगीमगर घर में घुसते ही दोनों हैरान रह गएबच्चों ने घर को गुब्बारों और झालरों से सजाया हुआ था.*


*वहीं अम्मा ने शालू की मनपसंद डिशेज़ और केक बनाए हुए थेइस रप्राइज़ बर्थडे पार्टीबच्चों के उत्साह और अम्मा की मेहनत सेशालू अभिभूत हो उठी और उसकी आंखें भर आईं.*


*इस तरह के वीआईपी ट्रीटमेंट की उसे आदत नहीं थी और इससे पहले बच्चों ने कभी उसके लिए ऐसा कुछ ख़ास किया भी नहीं था.*


*बच्चे दौड़कर शालू के पास  गए और जन्मदिन की बधाई देते हुए पूछा, “आपको हमारा सरप्राइज़ कैसा लगा ?”*


*“बहुत अच्छाइतना अच्छाइतना अच्छा… कि क्या बताऊं…” कहते हु उसने बच्चों को बांहों में भरकर चूम लिया.*


*“हमें पता था आपको अच्छा लगेगाअम्मा ने बताया कि बच्चों द्वारा किया गया छोटा-सा प्रयास भी मम्मी-पापा को बहुत बड़ी ख़ुशी 

देता हैइसीलिए हमने आपको ख़ुशी देने के लिए ये सब किया.”*


*शालू की आंखों में अम्मा के लि कृतज्ञता छा गईबच्चों से ऐसा सुख तो उसे पहली बार ही मिला था और वो भी उन्हीं के संस्कारों के कारण.*

*केक कटने के बाद गायत्री देवी ने अपने पल्लू में बंधी लाल रुमाल में लिपटी एक चीज़ निकाली और शालू की ओर बढ़ा दी.*


*“ये क्या है अम्मा ?”*


*“तुम्हारे जन्मदिन का उपहार.”*

*शालू ने खोलकर देखा तो रुमाल में सोने की चेन थी.*



*वो चौंक पड़ी, “ये तो सोने की मालूम होती है.”*


*“हां बेटीसोने की ही हैबहु मन था कि तुम्हारे जन्मदिन पर तुम्हें कोई तोहफ़ा दूंकुछ और तो नहीं है मेरे पासबस यही 

 चेन है, इन्होने दी थी जिसे संभालकर रखा था. मैं अब इसका क्या करूंगीतुम पहननातुम पर बहुत अच्छी लगेगी.”*


*शालू की अंतरात्मा उसे कचोटने लगीजिसे उसने लाचार बुढ़िया समझकर स्वार्थ से तत्पर हो अपने हां आश्रय दियाउनका इतनाबड़ा दि कि अपने पास बचे इकलौते स्वर्णधन को भी वह उसे सहज ही दे रही हैं.*


*“नहींनहीं अम्मामैं इसे नहीं ले सकती.”*


*“ले ले बेटीएक मां का आशीर्वाद समझकर रख लेमेरी तो उम्र भी हो चलीक्या पता तेरे अगले जन्मदिन पर तुझे कुछ देने के लि मैंरहूं भी या नहीं.”*


*“नहीं अम्माऐसा मत कहिएईश्वर आपका साया हमारे सिर पर सदा बनाए रखे.” कहकर शालू उनसे ऐसे लिपट गईजैसे बरसों बादकोई बिछड़ी बेटी अपनी मां से मिल रही हो.*


*वो जन्मदिन शालू कभी नहीं भूलीक्योंकि उसे उस दिन एक बेशक़ीमती उपहार मिला थाजिसकी क़ीमत कुछ लोग बिल्कुल नहीं समझते और वो है नि:स्वार्थ मानवीय भावनाओं से भरा मां का प्यारवो जन्मदि गायत्री देवी भी नहीं भूलींक्योंकि उस दिन उनकी उसघर में पुनर्प्रतिष्ठा हुई थी.*


*घर की बड़ीआदरणीयएक मां के रूप मेंजिसकी गवाही उस घर के बाहर लगाई गई वो पुरानी नेमप्ले भी दे रही थीजिस परलिखा था -*

           *‘गायत्री निवास’*


*यदि आपकी आंखे इस कहानी को पढ़क थोड़ी सी भी नम हो गई   हो तो अकेले में 2 मिनट चिंतन करे कि पाश्चात्य संस्कृति की होड़में हम अपनी मूल संस्कृति को भुलाकर,  बच्चों की उच्च शिक्षा पर तो सभी का ध्यान केंद्रित हैं 

किन्तु उन्हें संस्कारवान बनाने में हमपिछड़ते जा रहे हैं *

एक यादगार अनुभव- Graceful aging

Lanscape अभी अभी मैं उत्तराखण्ड के पहाड़ों से लौटा हूँ, बेटे अभिनव के अनुरोध पर काफी दिनों से कार्यक्रम बनता रहा पर आना अभी हो सका। वो ज्योली...