एक कविता
अब मैं बड़ा हो गया हूँ;
मुझको लगता है, मैं बड़ा हो गया हूँ,
उम्र के साथ साथ, उम्रदराज हो गया हूँ;
चूंकि ढल गयी है उम्र शायद, इसीलिए,
सुफेद झुरमुटों से झाँकती चाँदनी
कहती है कि मैं बड़ा हो गया हूँ।
जब मैं छोटा था, नादान था,
जो भी होता था मन में, कह देता था;
फूलों को देखकर मन आनंदित होता था,
तितली न पकड़ आने पर रोना आता था;
पेड़ों पर लगे अमरूद चोरी करके
भागने का आनंद, कुछ और ही था।
बड़ा होने का बड़ा सुरूर था मुझे,
बुनता था ताने-बाने करूंगा क्या,
बड़ा होकर मैं,
जैसे-जैसे बड़ा हुआ, कोशिश करता हूँ,
दूसरों का मन पढ़ने की, बातें गढ़ने की,
दूसरों को अपनी तस्वीर में उतारकर
लगता है, मैं बड़ा हो गया हूँ।
वही कहता हूँ, जिससे स्व सधे,
दूर की कौड़ी देखकर ही बोलता हूँ,
सामने वाले को हर तरीके से तौलता हूँ,
जो भी बोलता हूँ, फिर सलीके से बोलता हूँ,
फ़क्र होता है अपने आप पर, कि
अपने पैरों पर तो खड़ा हो गया हूँ;
अब तो वाकई मैं बड़ा हो गया हूँ।
पर कौड़ियों के खेल में, बात गढ़नें की
रेलम-पेल में, ज़िंदगी बेमैल हो गयी है,
जो देखता हूँ वो होता नहीं है, और जो होता है
वो बचपन वाली सोच के करीब होता है;
सोचता हूँ बार-बार क्या मैं बड़ा हो गया हूँ??????
पर मैं कहाँ बढ़ा, मैं कहाँ बड़ा हो गया हूँ????????
Amazing...
ReplyDeleteखूबसूरत अभिव्यक्ति...
ReplyDeleteWonderful....
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