कविता- ये कैसा दोस्त
मैंने अपने दोस्त (?) से कहा,
मैं अपना दिमाग उधार देता हूँ,
ताकि लोग उसका इस्तेमाल कर सकें।
उसने कहा अच्छा ! कितना लेते हो,
उधार देने का ? मुझे चाहिए, कीमत बताओ।
मैंने कहा, नहीं भाई यह तुम्हारे बस मे नहीं है।
डरते क्यूँ हो, देखें सही, अपनी औकात तो दिखाओ,
उसने कहा।
मैंने फिर कहा, भाई तेरे बस में नहीं है।
उसकी दृष्टि वक्र हो गई, जुबां की कैंची और तेज हो गई।
उसने उलाहना देते हुए कहा, तुम्हारी कीमत तो मैं दे ही सकता हूँ।
मैंने उड़ती नज़र से उसे देखा, फिर कहा,
दोस्त(?) उसकी कीमत है “इंसानियत...”
अच्छा तुम समझते हो, मै इंसान नहीं हूँ, कटाक्ष किया उसने।
मैं अच्छे कपड़े पहनता हूँ, लोग मेरी तारीफ़ करते नहीं थकते।
मैं लोगों की मुश्किलें यूँ सुलझा देता हूँ कि पता भी नहीं चलता।
मैं हर आदमी को, हर मौके पर ताड़ लेता हूँ, बाकायदा अपने खाके में उतार लेता
हूँ।
मैंने कहा दोस्त(?), इंसान होने और इंसानियत होने में फर्क होता है।
इंसानियत मन की मैल उतारने पर दिखती है, दूसरों की मुश्किलों मे उतर जाने पर दिखती है, खुद को दूसरों के दिलों में बसाने पर दिखती है।
किसी की बहुत ही अच्छी पंक्तियाँ से अपनी कविता का अंत करूंगा।
यूँ ही हम दिल को साफ़ रखा करते थे,
पता नही था की, ''कीमत चेहरों की होती है'!!
"दो बातें इंसान को अपनों से दूर कर देती हैं"
एक उसका 'अहम' और दूसरा उसका 'वहम'.
"पैसे से सुख कभी खरीदा नहीं जाता और दुःख का कोई खरीददार नहीं होता।"
"किसी की गलतियों को बेनक़ाब ना कर"
"'ईश्वर' बैठा है, तू हिसाब ना कर"
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एक कविता उन लोगो के नाम जो हर चीज का दोष दूसरों पर मढ़ देते हैं.....................
अब लोग देखो कितने खुदगर्ज हो गयें हैं, अपनी ही मस्ती में तो मदमस्त हो गये हैं।
अपनी ही बातों का बनाते हैं शिग़ूफ़ा, न जाने कहाँ कहाँ ये व्यस्त हो गये हैं।
दिल में आग कहाँ, कुछ करने की राह कहाँ ? कुछ करने का नाम लेते ही ये सुस्त हो गये हैं।
कहते हैं जमाने का बोझ हैं उठाये हुए? इंसानियत के नाम पर ये पस्त हो गये हैं।
दुनिया को नामर्द साबित करते नहीं थकते थे, ये अपनी ही मर्दानिगी से ध्वस्त हो गये हैं।
पैसों की गर्मी थी बहुत मगर, ऊपर वाले की मार से लस्त हो गये हैं।
अब लोग देखो कितने खुदगर्ज हो गयें हैं, अपनी ही मस्ती मे तो मदमस्त हो गये हैं।
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देखो तो ख्वाब है ज़िन्दगी;
पढ़ो तो किताब है ज़िन्दगी;
पर हमें लगता है कि
हँसते रहो तो आसान है ज़िन्दगी।
सुनो तो ज्ञान है ज़िन्दगी;
हँसी की फुहार है जिंदगी,
प्यार का हार है जिंदगी,
अपनों का साथ है जिंदगी;
खुशी की आस है जिंदगी;
कुछ है जो हरदम रहें दुःखी;
और कहे ग़फलत है, उसकी
तो वाकई बेकार है जिंदगी;
पर हमें लगता है कि
हँसते रहो तो आसान है ज़िन्दगी,
वरना रोने वालों
की तमाम है ज़िंदगी।
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रुई का गद्दा
रुई का गद्दा बेच कर
मैंने इक दरी खरीद ली,
ख्वाहिशों को कुछ कम किया मैंने
और ख़ुशी खरीद ली ।
सबने ख़रीदा सोना
मैने इक सुई खरीद ली,
सपनो को बुनने जितनी
डोरी ख़रीद ली ।
मेरी एक खवाहिश मुझसे
मेरे दोस्त ने खरीद ली,
फिर उसकी हंसी से मैंने
अपनी कुछ और ख़ुशी खरीद ली ।
इस ज़माने से सौदा कर
एक ज़िन्दगी खरीद ली,
दिनों को बेचा और
शामें खरीद ली ।
शामें गमगीऩ हुईं,
खुशियाँ संगीन
हुई,
फ़ितरतों को बेच
कर
औरों की खुशी छीन
ली ।
शौक-ए-ज़िन्दगी कमतर से
और कुछ कम किये,
फ़िर सस्ते में ही
"सुकून-ए-ज़िंदगी" खरीद ली ।
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मुस्कराया करो
जब भी करो बात
मुस्कुराया करो ।
जैसे भी रहो,
खिलखिलाया करो ।
जो भी हो दर्द,
सह जाया करो ।
ज्यादा हो दर्द तो
अपनों से कह जाया करो ।
जीवन एक नदी है,
तैरते जाया करो।
ऊँच नीच होगी राह में,
बढ़ते जाया करो।
अपनापन यहाँ महसूस हो तो
चले आया करो ।
बहुत सुंदर है यह संसार,
सुंदर और बनाया करो
इसलिए,जब भी करो बात
मुस्कुराया करो।
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