कहाँ है वो ईश्वर"
उस विडम्बना को लेकर , जिसको कि मैं
पहचानता नहीं |
जो छिपी है उन चेहरों में, धंसी है उन आत्माओं में;
जो अपने हो कर भी अपने न रहे, जो दिन रात स्वयं को छलते रहे |
फेंका भ्रम का ऐसा मायाजाल, चकाचौंध कर गए
दुनिया को;
क्या कंहू उनको, मैं जानता हूँ!! पर पहचानता नहीं !!!!
यह विडम्बना भी कैसी है, जो आत्मा को खोखला कर गयी;
थाली पर छेद करने की औक़ात और पीठ पर
छुरा भोंकने की ताकत दे गयी |
मैं अविछन्न सा बैठा हूँ, इस इंतज़ार मैं; शायद एक दिन इसे
पहचाना जायेगा, हवा को स्वतंत्रता का और आवाज को ताकत का बाना पहनाया जायेगा |
तब मुझे मुक्ति मिलेगी उन विडम्बनाओं से,जो उकसाती हैं अपनी आत्मा बेचने को, अपनी मां की इज़्ज़त से खिलवाड़ करने को, अपने आप को छलने को |
कहाँ है वो ईश्वर, बताओ तो ?
उसी को उठाने का उपक्रम ही करूँ मैं; कुछ तो संतुष्टि
मिलेगी, नहीं कोसेगी मेरी आत्मा मुझे |
डराएगी नहीं वो विडम्बना मुझे, छल उनका छेदेगा नहीं मेरे हृदय को;
सो सकूँगा चैन का एक पल, कहाँ है बता दो वो ईश्वर ?????
कौन हैं नपुंसक
नपुंसक ........कौन हैं नपुंसक ...........हिंजड़ा..........भला वो कैसे हो
सकता है नपुंसक???
मैं सोचता हूँ ??? आखिर नपुंसक की परिभाषा क्या है, क्या नपुंसक इंसान होते है
??
कैसे पहचानेगे उन्हें....कि वो क्या होते है......|
वे तो होते हैं स्वार्थ के पुलिंदे, अहं के बंदे, उनमें तूफ़ान नहीं होते हैं |
तूफ़ान जीवटता के, दर्द को समेटे रखकर जीवंत रहने के,
तूफ़ान आल्हाद के, आत्मीयता के, संवेदनाओं के,
तूफ़ान प्रेम के, आनंद के, तूफ़ान इंसानियत के,
उनमें तो बस होता है नीचता का दंभ, कायरता के रंग,
अहंकार में मदमस्त, ये अपने को भगवान समझते हैं............. ये इंसान नहीं
होते हैं |
होते हैं इनमें पल-पल बदलते चरित्र और फ़रेब से भरा मन,
शातिर दिमाग की शैतानियत, और होता है अपनों को ही ठगने का फन;
खुद तो नंगे होते ही हैं, पर दूसरों को नंगा साबित करते फिरते हैं,
उनके नंगेपन पर कोई उँगली उठाये, तो ये उसकी बाँह तोड़ देते हैं;
हम सब भी कभी न कभी, कहीं न कहीं, नपुंसक होते हैं,
इसीलिए उन पर न उँगली उठा, झाँक अपने जी में,
ढूंढ उस इंसानियत को |
ढूंढ उस इंसानियत को |
क्योंकि, जो इंसान होते हैं, वे नपुंसक नहीं होते हैं|
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